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सर्वोच्च न्यायालय की क्षेत्रीय न्यायपीठ

सर्वोच्च न्यायालय की क्षेत्रीय न्यायपी 

राज्य सभा सदस्य और वरिष्ठ वकील पी विल्सन ने केंद्रीय कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद को पत्र लिखते हुए, नई दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थायी क्षेत्रीय न्यायपीठ की स्थापना के लिये संविधान के अनुच्छेद 130 में संशोधन करने के लिए संसद में विधेयक लाने का आग्रह किया है। इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या की समस्या से निपटने के लिए न्यायाधीशों की संख्या में बढ़ोत्तरी और सर्वोच्च न्यायालय की क्षेत्रीय न्यायपीठों के गठन का सुझाव रखा जा चुका है। 1956 में सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या को मौजूदा 8 से बढ़ाकर 11 किया गया; 1960 में 11 से 14; 1977 में 14 से 17; 1986 में 17 से 26; और 2008 में 26 से 31 किया गया।[1] लेकिन किये गए अध्ययनों से यह संकेत मिलता है कि सिर्फ न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने से मामलों के निस्तारण की दर में सुधर नहीं होता। नए न्यायाधीशों के आने पर सुनवाई की अवधी में अपने आप बदलाव (यानी बढ़ोत्तरी) हो जाता है।[2]   

सर्वोच्च न्यायालय में मामलों के लंबे समय से लंबित रहने की समस्या के पीछे के ढांचागत मुद्दों की अक्सर अनदेखी की जाती है। पहला मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय के व्यापक अधिकारक्षेत्र से जुड़ा है- सर्वोच्च न्यायालय न सिर्फ मूलभूत अधिकारों से जुड़े मामलों के लिए मूल अधिकारक्षेत्र वाले न्यायलय की भूमिका निभाता है बल्कि भारत में अपील से जुड़ा अंतिम न्यायालय भी है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय की कल्पना देश के सबसे ऊंचे संवैधानिक न्यायालय के रूप में की गई थी, लेकिन अब इसका ज़्यादातर समय निचले न्यायालयों और न्यायाधिकरणों के फैसलों के खिलाफ अपीलों की सुनवाई में जाता है (जिनमें ज़्यादातर अपील उच्च न्यायालय के फैसलों से संबंधित होती हैं), जो इसके विशेष अनुमति (स्पेशल लीव) अधिकारक्षेत्र के तहत आती हैं।[3] इस विशेष अनुमति अधिकारक्षेत्र का शुरुआती मकसद सिर्फ विशेष परिस्थितियों तक सीमित था।[4] सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज का एक तथ्यात्मक अध्ययन[5], इस मुद्दे पर और अधिक रोशनी डालता है। इस अध्ययन के तहत सर्वोच्च न्यायालय के कार्यभार को विषयों के अनुसार अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित सिविल मामलों में सबसे बड़ा अनुपात ‘सेवा मामलों’ का था। जनहित याचिकाओं सहित संवैधानिक मामले सर्वोच्च न्यायालय के कार्यभार का बहुत छोटा (10%) हिस्सा थे। 

कानून के महत्वपूर्ण सवालों से जुड़े मामलों की सुनवाई के लिए पांच-न्यायाधीशों की न्यायपीठ गठित करने में सर्वोच्च न्यायालय का निराशाजनक रिकॉर्ड, इस मुद्दे को और गंभीर बना देता है। अध्ययन में शामिल किये गए 90% मामलों के लिए दो-न्यायाधीशों की न्यायपीठ गठित की गई और बाकी मामलों में से ज़्यादातर के लिए तीन-न्यायाधीशों की न्यायपीठ गठित की गई। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित मामलों में से मुट्ठी भर मामलों की सुनवाई के लिए ही पांच-न्यायाधीशों की न्यायपीठ का गठन किया गया। अध्ययन में यह भी पाया गया कि सरकार द्वारा उठाये गए कदमों या अधिनियमों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाले मामलों में से एक बड़े प्रतिशत को दो-न्यायाधीशों की न्यायपीठ द्वारा सुना गया। जनहित याचिकाओं के संदर्भ में भी यही रुझान देखा गया, जहां 71% जनहित याचिकाओं को दो-न्यायाधीशों की न्यायपीठ द्वारा सुना गया।[6] 

इस अध्ययन से निकले एक और निष्कर्ष में पाया गया कि सर्वोच्च न्यायालय से भौगोलिक दूरी और अपील दायर किये जाने की दर में नज़दीकी संबंध था। उच्च न्यायालयों के फैसलों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में दायर की जाने वाली अपीलों में एक बड़ा प्रतिशत हिस्सा पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय से आने वाले अपील मामलों का था, जबकि उत्तरपूर्वी राज्यों के उच्च न्यायालयों से कोई अपील नहीं थी। यही नहीं, दो-न्यायाधीशों की न्यायपीठों द्वारा निस्तारित मामलों में 90% मामले इस तरह की अपीलों के थे। पांच-न्यायाधीशों की न्यायपीठों द्वारा सुनाये गए फैसले सर्वोच्च न्यायालय के मूल अधिकारक्षेत्र तक सीमित थे।[7] एक दूसरे अध्ययन के निष्कर्ष भी इस तर्क की पुष्टि करते हैं: दिल्ली के नज़दीक रहने वाले अपीलकर्ताओं द्वारा अपील दायर किये जाने की संभावना, दिल्ली से दूर स्थित अपीलकर्ताओं के मुकाबले कहीं ज़्यादा पायी गई।[8] 2011 में, सर्वोच्च न्यायालय से सबसे निकटतम दूरी पर स्थित उच्च न्यायालयों से आने वाली अपीलों की संख्या बाकी सभी से कहीं ज्यादा थी। हालांकि इन राज्यों की आबादी देश की कुल जनसंख्या का सिर्फ 7.2% हिस्सा है, लेकिन इन उच्च न्यायालयों से आने वाली अपील, सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दायर की जाने वाली कुल अपीलों का 34.1% हिस्सा थी।[9] इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय में मामले दायर करने की क्षमता रखने वालों (जैसे सरकारें) द्वारा अपील दायर करने की संभावना कहीं अधिक थी।[10] अपील दायर करने की लागत का एक बड़ा हिस्सा वरिष्ठ अधिवक्ताओं की सेवाओं पर होने वाला खर्च था।

सर्वोच्च न्यायालय के बढ़ते कार्यभार का एक कारण आम जनता की निगाहों में सर्वोच्च न्यायालय की छवि भी है। जनता की निगाहों में सर्वोच्च न्यायालय अचूक और भ्रष्टाचार-मुक्त  है, और स्थानीय सत्ता समीकरणों से अछूता है। निचले और उच्च न्यायालयों को शक की निगाहों से देखने वाली आम जनता का मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय इन निचले न्यायालयों पर निगरानी रखने और उन्हें जवाबदेह बनाने की भूमिका निभाता है।[11] इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के कार्यभार का एक बड़ा हिस्सा विशेष अनुमति अधिकारक्षेत्र के मामलों का है। सर्वोच्च न्यायालय के सामने दो श्रेणी के मामले आते हैं: ‘प्रवेश मामले’ और ‘नित्य सुनवाई के मामले’। प्रवेश मामले वे ऐसे मामले होते हैं जिनको नित्य सुनवाई के लिए दाखिल किये जाने पर फैसला लेने के बारे में सर्वोच्च न्यायालय सोच-विचार करता है। इन मामलों की सुनवाई के लिए कार्य सप्ताह में से दो दिन रखे जाते हैं, जिनमें विशेष अनुमति अधिकारक्षेत्र के मामले भी शामिल हैं। बाकी के तीन दिन, नित्य सुनवाई वाले मामलों के लिए रखे जाते हैं।[12] कानून से जुड़े अहम सवालों पर सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न के बराबर समय दिया जाता है। 

इन सभी कारणों की वजह से, सर्वोच्च न्यायालय की ‘क्षेत्रीय न्यायपीठों’ के गठन के ज़रिये इसके संवैधानिक और अपील-संबंधी अधिकरक्षेत्रों को अलग करने का सुझाव दिया जाता रहा है। संवैधानिक विषयों से जुड़े मामलों की सुनवाई करने वाला संवैधानिक प्रभाग दिल्ली में होगा, और अपील-संबंधी मामलों को सुनाने वाले प्रभाग देश के अलग-अलग क्षेत्रों में होंगे।[13] भारत के विधि आयोग ने कई बार सर्वोच्च न्यायालय को विभिन्न प्रभागों में विभाजित करने की सिफारिश की है।[14] 1986 में, 95वें विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सर्वोच्च न्यायालय को (i) संवैधानिक प्रभाग और (ii) कानूनी प्रभाग में बांटने का प्रस्ताव रखा था। रिपोर्ट में इन प्रभागों द्वारा सुने जाने वाले अलग-अलग श्रेणी के मामलों को भी वर्गीकृत किया गया था। इसके अलावा, रिपोर्ट में यह भी प्रस्ताव रखा गया था कि सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के कुछ समय बाद ही उन्हें किसी एक प्रभाग के साथ जोड़ दिया जाना चाहिए।[15] इसके बाद, 1988 में 125वें विधि आयोग की रिपोर्ट ने 95वें विधि आयोग की रिपोर्ट में की गई सिफारिशों को दोहराया। इस विधि आयोग का मानना था कि सर्वोच्च न्यायालय को दो प्रभागों में विभाजित करने से न्याय तक पहुंच में व्यापक सुधार होगा, और इससे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मामले दायर कारने के खर्च में भी उल्लेखनीय कमी आएगी।[16]

पिछली रिपोर्ट की ही तर्ज पर, 18वें विधि आयोग ने 2009 में उत्तरी क्षेत्र के लिए दिल्ली, दक्षिण क्षेत्र के लिए चेन्नई/हैदराबाद, पूर्वी क्षेत्र के लिए कोलकाता और पश्चिम क्षेत्र के लिए मुंबई में कैसेशन (अपील) न्यायपीठों की स्थापना की सिफारिश की। इन चार कैसेशन न्यायपीठों के अधिकारक्षेत्र में इन क्षेत्रों के उच्च न्यायालयों से आने वाले अपील-संबंधी मामले आयेंगे। विधि आयोग ने संवैधानिक और अन्य संबंधित मुद्दों के लिए दिल्ली में एक संविधान पीठ की स्थापना की भी सिफारिश की।[17] इससे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित मामलों के बैकलॉग को ख़त्म करने में मदद होगी, और सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रीय महत्व के मामलों और महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दों से संबंधित मामलों को अपना ज़्यादा समय दे पायेगा। यह सुझाव दिल्ली से दूर रहने वालों के हित में भी था, जिनके संवैधानिक न्याय के अधिकार दिल्ली से दूरी की वजह से विपरीत रूप से प्रभावित हो रहे हैं।[18] 2019 में, भारत के उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने क्षेत्रीय न्यायपीठों के गठन की जोरदार पैरोकारी करते हुए कहा था कि यह कदम न्यायपालिका को लोगों के करीब लाएगा। इस तरह, दिल्ली आने-जाने के खर्च से भी बचा जा सकता है।[19] संक्षेप में, न्याय को अधिक सुलभ बनाया जा सकता है।  

लेकिन, न्यायपालिका तक पहुँच को आसान बनाना एक दोधारी तलवार हो सकती है। हालांकि क्षेत्रीय पीठों का गठन, न्याय प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बना सकता है, लेकिन दूसरी तरफ इससे मामले-मुकदमे की संख्या में उछाल भी आ सकता है। अगर खुद सर्वोच्च न्यायालय का उदाहरण लिया जाए, तो एक अध्ययन के अनुसार भारतीय सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच में हुआ सुधर ही इसके कार्यभार में हुए बड़े इज़ाफ़े का कारण था।[20] यदि क्षेत्रीय पीठों का गठन किया जाता है तो मामलों की मात्रा में होने वाली बढ़ोत्तरी से बचा नहीं जा सकता। क्षेत्रीय पीठों के गठन से मुकदमेबाजी के खर्च में होने वाली कमी और आसान पहुंच के चलते, लंबित मामलों की संख्या और बढ़ सकती है।

लंबित मामलों के अपने बढ़ते कार्यभार के कारण, जिस अतिरिक्त चुनौती से सर्वोच्च न्यायालय जूझ रहा है, वह है निर्णयों में गैर-एकरूपता की समस्या। देश के सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण होने के नाते, सर्वोच्च न्यायालय का दायित्व है कि वह अपने फैसलों के माध्यम से कानूनी विषयों पर निश्चितता स्थापित करें। सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज पर किये गए एक अध्ययन में अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि कई न्यायपीठ निम्न तर्कपूर्णता वाले फैसले दे रही हैं, स्थापित पूर्व निर्णयों की अक्सर अवहेलना करती हैं, और परस्पर विरोधी पूर्व निर्णयों की बढ़ती संख्या के लिए ज़िम्मेदार हैं। अन्य न्यायालयों में वकील, आमतौर पर पूर्व निर्णयों की समझ (जिसका सख्ती से पालन किया जाता है) के आधार पर अपने मुवक्किलों को उनके मामले के अदालतों में सफल होने की संभावनाओं के बारे में सलाह देते हैं। लेकिन भारत में, विरोधाभासी पूर्व निर्णयों की भरमार, अदालत के बाहर समझौता करने के बजाय मुकदमेबाज़ी को प्रोत्साहित कर रही है। अध्ययनकर्ताओं ने इससे पैदा होने वाले कुचक्र की ओर भी इशारा किया है: सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित मामलों की बड़ी संख्या के कारण, काम के बोझ तले दबे न्यायाधीशों को मामलों पर सावधानीपूर्वक विचार करने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है। यह अतार्किक निर्णयों और अस्थिर फैसलों को जन्म देता है, जो बदले में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अधिक मामलों के दायर किये जाने का कारण बनता है।[21] क्षेत्रीय पीठों के गठन से यह समस्या और बढ़ सकती है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में अतिरिक्त पीठों का गठन, अधिक मुकदमेबाजी को आमंत्रण देगा, जो बदले में, असंतुलित कानूनी सिद्धांतों को जन्म देगा। 

2010 में सुप्रीम कोर्ट ने क्षेत्रीय पीठों की मांग को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि इससे देश की एकात्मक संरचना पर बुरा असर पड़ेगा।[22] किसी भी नये विचार की ही तरह, क्षेत्रीय पीठों की अवधारणा के भी अपने फायदे और नुकसान हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय, लंबित मामलों की लगातार बढ़ती हुई संख्या और अन्य संबंधित चिंताओं को ध्यान में रखते हुए, इन तर्क-वितरकों पर सोच-विचार करने के बाद, लंबित मामलों की संख्या को कम करने की दिशा में उपयुक्त निर्णय ले।

(पूजा मूर्ति सलाहकार के रूप में दक्ष के साथ काम कर चुकी हैं)

[1] रॉबिन्सन, एन., 2013. स्ट्रक्चर मैटर्स: द इम्पैक्ट ऑफ़ कोर्ट स्ट्रक्चर ओन द इंडियन एंड यूएस सुप्रीम कोर्ट्स, द अमेरिकन जर्नल ऑफ़ कम्पेरेटिव लॉ, 61(1), पृष्ठ. 173-208।

[2] हेमराजनी, आर. और अग्रवाल, एच., 2019, अ टेम्पोरल एनालिसिस ऑफ़ सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया’स वर्कलोड, इंडियन लॉ रिव्यू, 3(2), पृष्ठ. 125-158।

[3] भारतीय संविधान का अनुच्छेद 136

[4] खेतान, तरुनाभ, “सुप्रीम कोर्ट एस अ कोंस्टीटूशनल वाचडॉग”, 721 सेमिनार, पृष्ठ 22-28, 2019।

[5] चंद्रा, अपर्णा, विलियम एच जे हबर्ड, और सीतल कलंत्री, “द सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया: एन एम्पिरिकल ओवरव्यू”, आगामी, रोसेनबर्ग, जेराल्ड एन., सुधीर कृष्णास्वामी, और शिशिर बेल, संपा., द इंडियन सुप्रीम कोर्ट एंड प्रोग्रेसिव सोशल चेंज (कैम्ब्रिज, 2019) (2018) में।

[6] वही।

[7] उपरोक्त नोट 6।

[8] उपरोक्त नोट 2।

[9] मिश्रा, एस., 2017. रीजनल बेंचेस ऑफ़ सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया-द पाथ अहेड,  क्राइस्ट यूनिवर्सिटी लॉ जर्नल, 6(1), पृष्ठ. 57-74.

[10] उपरोक्त नोट 2।

[11] वही।

[12]https://www.hindustantimes.com/columns/the-supreme-court-does-not-need-more-judges/story-GuWVG6vKXYP02aq3QGtC6N.html (आखिरी बार 05 नवंबर, 2019 को एक्सेस किया गया)

[13] उपरोक्त  नोट 5। https://pib.gov.in/newsite/PrintRelease.aspx?relid=192590 (आखिरी बार 31 अक्टूबर, 2019 तक देखा गया) भी देखें।

[14]https://indianexpress.com/article/explained/idea-of-regional-sc-benches-and-divisions-of-the-top-court-603692/ (आखिरी बार 31 अक्टूबर 2019 को देखा गया)।

[15] उपरोक्त नोट  10।

[16] वही।

[17] देखिये, 229th लॉ कमीशन ऑफ़ इंडिया, नीड फॉर डिवीज़न ऑफ़ द सुप्रीम कोर्ट इनटू अ कोंस्टीटूशनल बेंच एट डेल्ही एंड कैसशन बेंचेस इन फोर रेजियन्स एट डेल्ही, चेन्नई/हैदराबाद, कोलकाता एंड मुंबई (2009),  http://lawcommissionofindia.nic.in/reports/report229.pdf (आखिरी बार 04 नवंबर, 2019 को देखा गया)

[18] वही। इसके अलावा देखें, मिश्रा, एस., 2017, रीजनल बेंचेस ऑफ़ सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया-द पाथ अहेड,  क्राइस्ट यूनिवर्सिटी लॉ जर्नल, 6(1), पृष्ठ. 57-74.

[19] https://pib.gov.in/newsite/PrintRelease.aspx?relid=192590 (आखिरी बार 31 अक्टूबर, 2019 को देखा गया)।

[20] उपरोक्त नोट 2।

[21] वही।

[22]https://www.thehindu.com/news/national/Supreme-Court-again-says-lsquonorsquo-to-regional-Benches/article16815858.ece (आखिरी बार 31 अक्टूबर, 2019 को देखा गया)।

इस लेख में व्यक्त किये गए विचार लेखकों के अपने विचार हैं और वे दक्ष के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।

Translated from “Regional Benches of the Supreme Court” (https://www.dakshindia.org/regional-benches-of-the-supreme-court/) by Siddharth Joshi

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