ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना के तहत अदालती दस्तावेज़ों (रिकॉर्ड) के डिजिटलीकरण के कारण अब अदालती दस्तावेज़ों को अन्य आधिकारिक डेटाबेस के साथ भी जोड़ा जा सकता है। केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय के तहत आने वाले न्याय विभाग ने हाल ही में उच्च न्यायालयों से भूमि अभिलेखों (रिकॉर्ड) को राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) में संकलित डिजिटल न्यायिक रिकॉर्ड से जोड़ने के लिए मंजूरी देने का अनुरोध किया है।[1] न्यायालयों के डिजिटलीकरण के समर्थन में, न्यायिक डेटाबेस को अन्य आधिकारिक (और गैर-आधिकारिक) डेटाबेस से जोड़े जाने से होने वाले लाभों की ओर इशारा किया जा रहा है।[2]
अदालतों में दायर किए जाने वाले मामलों का एक बड़ा हिस्सा संपत्ति विवादों से संबंधित मामलों का होता है, और यह बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित करते हैं। कानूनी मामलों में शामिल पक्षों के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 66 प्रतिशत सिविल (दीवानी के) मामले, भूमि और संपत्ति से संबंधित थे,[9] और कुल मामलों में से 29 प्रतिशत मामले संपत्ति से संबंधित थे।[10] इसलिए, भूमि और संपत्ति से संबंधित मुकदमेबाजी की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए उठाए गए किसी भी कदम से, अदालतों में मामलों के निपटान में होने वाली देरी को कम करने में मदद मिलेगी। भूमि विवादों के एक अध्ययन, जिसके दायरे में कानूनी विवादों के अलावा समाचार खबरों, आधिकारिक दस्तावेजों और प्राथमिक स्रोतों को भी शामिल किया गया था, उसके अनुसार फरवरी 2020 के दौरान चल रहे 703 भूमि विवादों से करीब 65 लाख लोग प्रभावित थे।[11]
अदालती मामलों से जुड़े कई अलग-अलग पहलुओं में भूमि अभिलेख एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसका मतलब है कि ऐसी कई कारण हैं जिनकी वजह से भूमि अभिलेखों को अदालती रिकॉर्ड से जोड़ा जाना फायदेमंद साबित हो सकता है।
संपत्ति से जुड़े मामलों के निस्तारण में अक्सर काफी लंबा समय लगता है। भूमि और संपत्ति से संबंधित मामलों में शामिल, भूमि अधिग्रहण के अलग-अलग प्रकार के मामले महाराष्ट्र के तीन जिलों में 2.5 से 5.5 साल के बीच की अवधि तक लंबित पाए गए और कर्नाटक में 1 से 6.8 वर्ष के बीच की अवधि तक लंबित पाए गए।[3] बेंगलुरू ग्रामीण जिले में, सभी सिविल मामलों में सबसे ज़्यादा औसत निपटान अवधि (8.1 वर्ष) और लंबित मामलों की सबसे ज़्यादा औसत अवधि (6.5 वर्ष) भूमि अधिग्रहण के मामलों में देखी गई।[4] भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचने वाले मामलों के निस्तारण में औसतन 20 साल का समय लगता है।[5]
अदालती मामलों में लगने वाले समय का एक बड़ा हिस्सा सबूत दर्ज करने और निचली अदालतों से रिकॉर्ड के हस्तांतरण के इंतज़ार में लग जाता है। निचली अदालतों में मामलों पर खर्च होने वाले समय का औसतन 36 प्रतिशत हिस्सा साक्ष्य से संबंधित सुनवाई के दौरान खर्च होता है, जो इसे सुनवाई का औसतन सबसे लंबा चरण बनता है।[6] अभिलेखों की सटीकता और सत्यता इस चरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, और इसलिए भूमि अभिलेखों के आधिकारिक स्रोत की तत्काल उपलब्धता, इस चरण में लगने वाले समय को कम करने में मदद कर सकती है। अक्सर मामले की प्रगति में लगने वाले लंबे समय का एक प्रमुख कारण अभिलेखों के हस्तांतरण में होने वाली देरी होती है। 29,25,673 जिला अदालतों में चल रहे सिविल मामलों में औसतन 398 दिन, निचली अदालतों से रिकॉर्ड की प्रतीक्षा में खर्च किए जाते हैं।[7] बेंगलुरु ग्रामीण जिले में, भूमि अधिग्रहण के कुल लंबित मामलों में से 54 प्रतिशत मामले ‘नोटिस/समन/एलसीआर (निचली अदालत का रिकॉर्ड)’ चरण पर अटके हुए थे।[8] महत्वपूर्ण सरकारी रजिस्ट्रियों के साथ कोर्ट डेटाबेस को जोड़ने से इस चरण में लगने वाले समय में कटौती की जा सकती है, अगर वादी या निचली अदालतें, अपील की अदालत को सिर्फ एक विशिष्ट आईडी या संदर्भ संख्या दे सकें, जिसके ज़रिए अदालत सीधे रिकॉर्ड हासिल कर पाए। लेकिन, इसके लिए अदालती प्रक्रिया में महत्वपूर्ण संशोधनों की आवश्यकता होगी।
कुछ समस्याएं खुद भूमि अभिलेखों में पहले से मौजूद हैं, जो उनकी डिजिटल प्रतियों में भी दोहराई गई हैं, और इनके अलावा, भूमि अभिलेखों के डिजिटलीकरण की प्रक्रिया के दौरान भी कुछ अतिरिक्त त्रुटियां पैदा हुई हैं।
भूमि अभिलेखों का रखरखाव पंजीकरण विभाग, राजस्व विभाग, और सर्वेक्षण और निपटान विभाग सहित कई अलग-अलग विभागों और कार्यालयों द्वारा किया जाता है।[12] इनमें से हर इकाई की एक ख़ास भूमिका है और किसी भी इकाई का दूसरी के साथ कोई तालमेल नहीं है। रिकॉर्ड प्रबंधन में समन्वय की इस कमी के कारण दस्तावेजों की सत्यता स्थापित करना और इन्हें सटीक और नवीनतम बनाये रखना कठिन हो जाता है। इन विभिन्न इकाइयों के अभिलेखों के बीच में समन्वय के अभाव के कारण, एक विभाग द्वारा किया गया बदलाव दूसरे विभाग द्वारा रखे गए रिकॉर्ड में दर्ज नहीं होता है।[13]
मौजूदा भूमि रिकॉर्ड डिजिटलीकरण पहल, जिसे ‘डिजिटल इंडिया – भूमि रिकॉर्ड आधुनिकीकरण कार्यक्रम’ कहा जा रहा है, उसका उद्देश्य ‘निर्णायक स्वामित्व’ की दिशा में बढ़ना है, जिसके तहत संपत्ति पर स्वामित्व का प्रमाण सरकार द्वारा प्रबंधित अभिलेखों में रखा जाएगा, जो इसकी सत्यता की गारंटी देगा। यह मौजूदा प्रणाली के बिल्कुल विपरीत है, जहां भूमि के हस्तांतरण को बिक्री विलेख के माध्यम से दर्ज किया जाता है, लेकिन यह स्वामित्व की कानूनी गारंटी देने के लिए काफी नहीं होता है।[14] इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए, इसके तहत, पंजीकरण विभाग के साथ पंजीकृत किए गए लेनदेन के दस्तावेज़, सर्वेक्षण और निपटान विभाग द्वारा रखे गए स्थानिक रिकॉर्ड, और राजस्व विभाग के अधिकार रिकॉर्ड (खसरा-खतौनी) और अन्य दस्तावेजों का एकीकरण करना होगा।
इस दिशा में कुछ प्रगति देखी जा सकती है,[15] लेकिन रिकॉर्ड का एकीकरण तब तक प्रभावी साबित नहीं होगा जब तक भूमि अभिलेखों के रखरखाव से जुड़े कुछ जटिल मुद्दों को संबोधित नहीं किया जाता है।
भूमि अभिलेखों के खराब रखरखाव के कारण स्थानिक और दस्तावेज़ी अभिलेखों के मेल न खाने के कारण त्रुटियां पैदा हो गई हैं।[16] इन त्रुटियों को दूर करने के लिए ज़रूरी भूमि सर्वेक्षण, भारत के कई हिस्सों में कई सालों से नहीं किए गए हैं या अब भी अधूरे हैं। असम इसका एक ज्वलंत उदाहरण है, जहां एक बड़े हिस्से का सर्वेक्षण कभी भी नहीं किया गया है।[17]
भूमि अभिलेखों में सुधार के लिए बड़े पैमाने पर समुचित प्रयास के बिना, विभिन्न डेटाबेस को जोड़ने की प्रक्रिया से मिलने सभी लाभ हासिल करना संभव नहीं होगा। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां भूमि अभिलेखों के मुद्दे, भूमि पर अधिकारों से और अभिलेखों के तैयार किए जाने की प्रक्रियाओं से जुड़े हैं, जो ख़ास समूहों के साथ भेदभाव करती हैं या उन्हें अनुपात में कहीं ज़्यादा नुकसान पहुंचाती हैं। इसलिए यह ज़रूरी नहीं हैं भूमि स्वामित्व से जुड़े दस्तावेज़, उस भूमि पर मौजूद सभी कानूनी अधिकारों और हकों की सटीक तस्वीर पेश करते हों। उदाहरण के तौर पर, महिलाओं को स्थानीय प्रशासन द्वारा घर के मुखिया का दर्जा नहीं दिए जाने के कारण, अक्सर भूमि पर मालिकाना हक नहीं दिया जाता है।[18]
इसके अलावा, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत भूमि अभिलेखों की सत्यता साबित करने की कानूनी प्रक्रियाओं की जटिलता के कारण, भूमि पर कानूनी रूप से अधिकार रखने वाले व्यक्ति, अपने दावों को साबित करने के लिए सिर्फ भूमि अभिलेखों का सहारा नहीं लेते हैं।[19] यह विशेष रूप से उन वन निवासियों को प्रभावित करता है जिनके भूमि के अधिकारों को वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत मान्यता दी गई है।[20]
भारत में एक समर्पित डेटा सुरक्षा ढांचे की अनुपस्थिति को ध्यान में रखते हुए, डेटाबेसों को जोड़ने की प्रक्रिया के तहत, इनमें उपलब्ध जानकारी के संबंध में गोपनीयता अधिकार, सुरक्षा उपाय और शिकायत निवारण तंत्र सुनिश्चित करने वाली एक पारदर्शी और सहभागिता-आधारित नीति को शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन, इसके साथ-साथ भूमि अभिलेखों के अदालती फैसलों और आदेशों जैसे सार्वजनिक न्यायिक दस्तावेजों में शामिल किए जाने पर, न्यायिक रिकॉर्ड से संबंधित में ज़रूरी पारदर्शिता और सार्वजनिक प्रकटीकरण की आवश्यकताओं को भी पूरा करना होगा। भारत में मौजूद डिजिटल गैर-बराबरी के कारण एक तरफ तो तीसरे पक्ष के व्यक्तियों को भूमि रिकॉर्ड आसानी से उपलब्ध होंगे, और दूसरी तरफ, जिन लोगों से इन दस्तावेज़ों का सीधा संबंध है, उनके लिए अपने डेटा सुरक्षा अधिकार लागू कर पाना तो छोड़ो, खुद रिकॉर्ड हासिल कर पाना भी बहुत मुश्किल हो सकता है।[21]
एनजेडीजी को भूमि अभिलेखों से जोड़ने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए स्पष्ट नियमों और नीतियों की आवश्यकता है जिनके तहत यह नियंत्रित किया जाए कि कौन सी जानकारी, किसके साथ और किस परिस्थिति में साझा की जा सकती है। इन नीतियों के तहत, डिजिटल दुनिया से बाहर रखे गए लोगों को भी आसानी से रिकॉर्ड तक पहुंचने की सुविधा प्रदान की जानी चाहिए, जैसे कि पंचायतों या नगरपालिका कार्यालयों में कियोस्क के माध्यम से। इसके बारे में जागरूकता फैलाने का प्रयास किया जाना चाहिए। डेटाबेस को जोड़ने से निश्चित रूप से संपत्ति विवादों के अधिक प्रभावी निस्तारण में मदद मिलेगी। लेकिन, सीधे तौर पर अभिलेखों में मौजूद त्रुटियों, अधूरेपन, और पुरानी जानकारी के कारण तथा लोगों के भूमि अधिकारों के दस्तावेज़ीकरण के अभाव के कारण पैदा होने वाले विवादों की संख्या को देखते हुए कहा जा सकता है कि जब तक इन मुद्दों को हल नहीं किया जाता है, तब तक इन मामलों की संख्या में कमी नहीं आएगी।
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