स्रोत: राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड
चित्र 1 में देखा जा सकता है कि निपटाए जाने वाली कार्यान्वयन याचिकाओं की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है, जबकि दायर की जाने वाली याचिकाओं की संख्या में लगातार वृद्धि देखी गई है (वर्ष 2020 को छोड़कर जहां कोविड-19 महामारी का प्रभाव देखा जा सकता है)। यह आंकड़े न्याय पाने की प्रक्रिया में आने वाली समस्याओं की व्यापकता और कार्यान्वयन मामलों को अधिक प्रभावी बनाए जाने की दिशा में स्पष्टता की ज़रुरत की ओर इशारा करते हैं।
देश में कार्यान्वयन मामलों की बड़ी संख्या, इन मामलों के निस्तारण में होने वाली अत्यधिक देरी और तीसरे पक्ष के दावों के कारण उत्पन्न होने वाले मुद्दों को ध्यान में रखते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने राहुल एस शाह के मामले में कार्यान्वयन मुकदमों में न्याय की मांग को ध्यान में रखते हुए, निम्नलिखित निर्देश जारी किये:-
- कब्जे की सुपुर्दगी से संबंधित मुकदमों में, अदालत को दोनों पक्षों के तर्कों की जांच के दौरान तीसरे पक्षों के हितों का भी संज्ञान लेना चाहिए, जिसमें दोनों पक्षों से तीसरे पक्षों के हितों से संबंधित घोषणा और दस्तावेज पेश करने को कहना शामिल है।
- जहां कब्जे की स्थिति पर कोई विवाद नहीं है, उन मामलों में अदालत संपत्ति का सटीक विवरण और स्थिति जानने के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति कर सकती है।
- अदालत को मुकदमे में सभी आवश्यक और उचित पक्षों को शामिल करना चाहिए ताकि एक ही विवाद से जुड़े कई मामलों की अलग-अलग सुनवाई से बचा जा सके।
- उचित अधिनिर्णयन में सहायता के लिए और संपत्ति की निगरानी के लिए एक कोर्ट रिसीवर की नियुक्ति की जा सकती है।
- अदालत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जारी किए गए निर्देश बिलकुल स्पष्ट हों और इनमें संपत्ति और उसकी स्थिति का स्पष्ट विवरण शामिल हो।
- पैसे की वसूली के लिए दायर किये गए मुकदमों में, अदालत को मौखिक आवेदन किये जाने पर निर्देशों का तत्काल कार्यान्वयन सुनिश्चित करना चाहिए।
- पैसे की वसूली से जुड़े मुकदमों में, अदालत सुनवाई के दौरान किसी भी समय निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए जमानत राशि जमा किये जाने की मांग कर सकती है।
- फरमानों और आदेशों को लागू किये जाने के मामलों के दौरान, अदालत को (a) तीसरे पक्षों द्वारा अधिकारों का दावा करने के आधार पर बिना सोच-विचार के नोटिस जारी नहीं करना चाहिए, (b) उन याचिकाओं को स्वीकार नहीं करना चाहिए जिन पर सुनवाई के दौरान विचार किया जा चुका गया है, (c) उन आवेदनों को स्वीकार नहीं करना चाहिए जिनमें ऐसे मुद्दे पेश किये गए हों जिन्हें सुनवाई के दौरान उठाया और निर्धारित किया जा सकता था।
- अदालत को केवल गिने-चुने असाधारण स्थितियों में ही कार्यान्वयन मामलों में साक्ष्य पेश किये जाने की अनुमति देनी चाहिए। इसकी अनुमति सिर्फ उस स्थिति में दी जानी चाहिए जहां आयुक्त की नियुक्ति या हलफनामे के साथ इलेक्ट्रॉनिक सामग्री पेश किये जाने के ज़रिये तथ्यों का फैसला नहीं किया जा सकता है।
- जब अदालत को कोई आपत्ति, प्रतिरोध, या दावा बेतुका या दुर्भावनापूर्ण लगता है, तो अदालत (ए) आवेदक को कब्जा दिए जाने का निर्देश जारी कर सकती है, (बी) आवेदक के कहने पर निर्णय में उल्लिखित देनदार (निर्णय-देनदार) को हिरासत में लेकर सिविल जेल में रखने का निर्देश दे सकती है, और (सी) मुआवज़े के रूप में लागत के भुगतान का निर्देश भी दे सकती है।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) की धारा 60 में, जो न्यायिक निर्देशों के अनुपालन के लिए नीलाम या जब्त की जा सकने वाली संपत्ति से संबंधित है, उसमें उपयोग की गई भाषा ‘निर्णय-देनदार (फैसले में उल्लिखित देनदार) के नाम पर या उसकी बिनाह पर या उसके लिए किसी अन्य व्यक्ति की देखरेख में’ के तहत ऐसे व्यक्ति भी शामिल किये जाने चाहिए जिनसे निर्णय-देनदार ‘हिस्सा, लाभ या संपत्ति हासिल करने की क्षमता रखता हो’।
- कार्यान्वयन अदालत को मामला दायर करने की तारीख से छह महीने के भीतर कार्यान्वयन की कार्यवाही का निपटान करना होगा। इस अवधी को सिर्फ तभी बढ़ाया जा सकता है जब देरी के कारणों को लिखित में दर्ज किया जाए।
- अगर कार्यान्वयन अदालत को महसूस होता है कि पुलिस की सहायता के बिना निर्देशों को लागू किया जाना संभव नहीं होगा, तो वह पुलिस को सहायता प्रदान करने का निर्देश दे सकती है। इसके अलावा, अगर अपने कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान किसी सार्वजनिक अधिकारी के खिलाफ किसी अपराध के बारे में अदालत को सूचित किया जाता है, तो ऐसे अपराध से सख्ती से निपटा जाना चाहिए।
- न्यायिक शिक्षाविदों को नियमावली तैयार करनी चाहिए और न्यायालय के कर्मचारियों को वारंट लागू करने, संपत्ति की कुर्की और नीलामी करने, या आदेशों के कार्यान्वयन से जुड़े किसी भी अन्य कर्तव्य को निभाने से संबंधित निरंतर प्रशिक्षण देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालयों को एक वर्ष की अवधि के अंदर, फरमानों के कार्यान्वयन से जुड़े अपने नियमों पर पुनर्विचार करने और उन्हें सीपीसी और इस मामले में दिए गए निर्देशों के अनुरूप बनाने की दिशा में बदलाव करने का निर्देश दिया। इसके अलावा, न्यायालय ने कार्यान्वयन की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग को भी प्रोत्साहित किया।
मौजूदा मामले के तथ्य:
इस मामले के तथ्य यह हैं कि विवादित भूमि के मालिक ने संपत्ति के कुछ हिस्सों के लिए बिक्री विलेख निष्पादित किये और, इसके बाद, 1987 में इस लेनदेन पर सवाल उठाते हुए, मालिकाना हक़ की घोषणा के लिए एक मुकदमा दायर किया। संपत्ति के मालिक द्वारा बाद में 1991 में एक पंजीकृत विभाजन विलेख निष्पादित किया गया, और इस मामले में जारी की गई निषेधाज्ञा के तहत खरीदारों को संपत्ति में प्रवेश करने से प्रतिबंधित किया गया। इस मुकदमे के लंबित होने के दौरान कुछ खरीदारों ने बिक्री विलेख के तहत कब्जे के लिए 1996 में मुकदमा दायर किया। खरीदारों ने अपने नाम पर संपत्ति के हस्तांतरण और नाम-परिवर्तन की भी मांग की, जिसे निचली अदालत द्वारा ख़ारिज किये जाने के बाद, उन्होंने कर्नाटक उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने निषेधाज्ञा के निपटान के बाद खाते के स्थानांतरण का निर्देश दिया। बेंगलुरु में सिटी सिविल न्यायाधीश ने सभी संबंधित मामलों को मिला कर उनमें सुनवाई शुरू की और 2006 में निषेधाज्ञा के मुकदमे को खारिज करते हुए, खरीदारों के पक्ष में फैसला सुनाया। फरमान-धारकों ने 2007 में कार्यान्वयन के लिए मुकदमा दायर किया क्योंकि इस दौरान, 2001 और 2004 के बीच, मालिकों ने चार बिक्री विलेखों के माध्यम से अन्य खरीदारों (‘बाद के खरीदारों’) को संपत्ति बेच दी थी। इस कार्यान्वयन मुकदमे के लंबित होने के दौरान, बैंगलोर मेट्रो परियोजना के लिए संपत्ति के कुछ हिस्से के अधिग्रहण की मांग की गई, जिस पर फरमान-धारकों ने आपत्ति जताते हुए, कब्जे की मांग की। इस दौरान, संपत्ति के मालिक ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के सामने पहली अपील दायर की, जिसे 2009 में खारिज कर दिया गया, और बाद में 2010 में मालिकों द्वारा दायर की गई विशेष अनुमति याचिका को भी खारिज कर दिया गया। इस बीच जब यह मामले उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित थे, उस दौरान ‘बाद के खरीदारों’ ने अधिग्रहण की जाने वाली संपत्ति के मुआवजे का दावा पेश किया। उच्च न्यायालय ने तब एक रिट याचिका में कहा कि वे मुआवजे के हकदार नहीं थे और उन्हें मुआवज़े की राशि वापस जमा करने के लिए कहा गया। ‘बाद के खरीदारों’ ने इस आदेश के खिलाफ अपील दायर की, जिसे उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने खारिज कर दिया। एक दूसरी रिट याचिका में, 2013 में उच्च न्यायालय ने खरीदारों को अपने नाम पर खाते के हस्तांतरण का हकदार ठहराया। चूंकि मुआवजा जमा करने के उच्च न्यायालय के आदेश का पालन नहीं किया गया था, इसलिए बाद के खरीदारों के खिलाफ अवमानना कार्यवाही शुरू की गई। अवमानना की कार्यवाही में 2013 में पारित किए गए आदेश को एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई जिसे 2014 में खारिज कर दिया गया। चूंकि कार्यान्वयन कार्यवाही में पक्षों द्वारा रुकावट के सबूत पेश किये जाने की ज़रुरत थी, लेकिन इस रुकावट-संबंधी कार्यवाही के दौरान मालिकों ने 2016 में फरमान-धारकों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू कर दी। इस आपराधिक कार्यवाही पर पहले रोक लगाई गई और बाद में 2017 में इसे रद्द कर दिया गया। कार्यान्वयन अदालत के विभिन्न आदेशों को रिट याचिकाओं और अपीलों के ज़रिये चुनौती दी गई, जिनमें कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 16 जनवरी 2020 के अपने साझा आदेश के माध्यम से फैसला सुनाया। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि कार्यान्वयन याचिका को छह महीने के भीतर निपटाया जाए और निर्णय-देनदारों द्वारा हर कार्यान्वयन याचिका में हर फरमान-धारक को 5 लाख रुपये की लागत का भुगतान किये जाने का निर्देश दिया। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मामला बाद के खरीदारों में से एक खरीदार द्वारा दायर की गई अपील का था जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को स्वीकार करते हुए अपील को खारिज कर दिया।
Translated from ‘Expediting Execution of Court Decrees’ https://www.dakshindia.org/expediting-execution-of-court-decrees/ by Siddharth Joshi
इस लेख में व्यक्त किये गए विचार सिर्फ लेखक के हैं और वे दक्ष के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।