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I. परिचय
देश में लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और इसी के साथ विभिन्न दल अपने अपने घोषणापत्रों को जनता के समक्ष रखेंगे। इन पत्रों के अध्ययन से इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े सुधार, विभिन्न जनकल्याणकारी वादे, चुनावी रेवड़ियां तथा जातीय-धार्मिक विषयों पर जनमत के साथ साथ पार्टियों के रुख का भी अनुमान लगेगा। परन्तु यह देखा गया है कि इस चुनावी कोलाहल के बीच एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे से हमारा ध्यान अक्सर हट जाता है. एक परिपक़्व लोकतंत्र होने के नाते वह मुद्दा है– संस्थागत सुधारों का. उदाहरण के लिए देश की सबसे महत्वपूर्ण तथा शक्तिशाली संस्थाओं में से प्रमुख न्यायपालिका के अंदर सुधारों पर पार्टियों से ना हम कोई अपेक्षा रखते हैं और ना ही इसपर जवाबदेही तय करते हैं जबकि सार्वजनिक विमर्श में न्यायपालिका की भूमिका काफी अहम मानी जाती रही है.
आजादी के बाद से ही सरकार और न्यायपालिका में खींचतान चलती आ रही है और काफी हद तक इसका कारण यह है की न्यायपालिका के एक बड़े धड़े के अंदर सुधार विरोधी रवैया मौजूद है. चूँकि इस अवरूद्धकारी रुख की वजह से राज्य के तीनों अंगों के भीतर तनाव उत्पन्न होते रहे हैं तो लम्बे समय से विभिन्न दलों ने भी अपने अपने तरीके से न्यायिक शक्ति को सीमित करने का प्रयास किया है. इसकी झलक हमें उनके चुनावी घोषणापत्रों में देखने को मिलती रही है.