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चुनावी घोषणापत्र और न्यायिक सुधार

सारांश – इस ब्लॉग पोस्ट में, प्रतीक कुमार न्यायिक सुधार के मुद्दे पर राजनीतिक दलों द्वारा अपनाए गए रुख पर चर्चा करते हैं। भारत और विदेश में पार्टियों के घोषणापत्रों का मूल्यांकन करके, यह पोस्ट न्यायिक स्वतंत्रता और संसदीय संप्रभुता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में वैचारिक विविधताओं का विश्लेषण करती है।

प्रमुख बिंदु

  1. राजनीतिक कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच का झगड़ा अक्सर सार्वजनिक तौर पर सामने आता रहता है। जहां न्यायपालिका निर्णयों के माध्यम से अपनी राय व्यक्त करती है, वहीं पार्टियाँ अपने घोषणापत्रों के माध्यम से ऐसा करती हैं।

  2. भारत के साथ-साथ विदेशों में घोषणापत्रों के सावधानीपूर्वक विश्लेषण से न्यायिक स्वतंत्रता से लेकर राजनीतिक पर्यवेक्षण तक विभिन्न प्रकार की राय सामने आती है। पोस्ट में बताया गया है कि क्षेत्रीय पार्टियां भी न्यायिक मुद्दों को गंभीरता से लेती हैं।

  3. अपने समापन में यह पोस्ट इन दोनों अंगों के रुख में संयम की आवश्यकता तथा न्यायपालिका के लिए अधिक से अधिक सार्वजनिक जवाबदेही की वकालत करता है। 

I. परिचय

देश में लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और इसी के साथ विभिन्न दल अपने अपने घोषणापत्रों को जनता के समक्ष रखेंगे। इन पत्रों के अध्ययन से इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े सुधार, विभिन्न जनकल्याणकारी वादे, चुनावी रेवड़ियां तथा जातीय-धार्मिक विषयों पर जनमत के साथ साथ पार्टियों के रुख का भी अनुमान लगेगा। परन्तु यह देखा गया  है कि इस चुनावी कोलाहल के बीच एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे से हमारा ध्यान अक्सर हट जाता है. एक परिपक़्व लोकतंत्र होने के नाते वह मुद्दा है– संस्थागत सुधारों का. उदाहरण के लिए देश की सबसे महत्वपूर्ण तथा शक्तिशाली संस्थाओं में से प्रमुख न्यायपालिका के अंदर सुधारों पर पार्टियों से ना हम कोई अपेक्षा रखते हैं और ना ही इसपर जवाबदेही तय करते हैं जबकि सार्वजनिक विमर्श में न्यायपालिका की भूमिका काफी अहम मानी जाती रही है.

आजादी के बाद से ही सरकार और न्यायपालिका में खींचतान चलती आ रही है और काफी हद तक इसका कारण यह है की न्यायपालिका के एक बड़े धड़े के अंदर सुधार विरोधी रवैया मौजूद है. चूँकि इस अवरूद्धकारी रुख की वजह से राज्य के तीनों अंगों के भीतर तनाव उत्पन्न होते रहे हैं तो लम्बे समय से विभिन्न दलों ने भी अपने अपने तरीके से न्यायिक शक्ति को सीमित करने का प्रयास किया है. इसकी झलक हमें उनके चुनावी  घोषणापत्रों में  देखने को मिलती रही है. 

राजनैतिक दल ये बात अच्छे से जानते हैं कि सोशल मिडिया के प्रसार से विगत कुछ वर्षों में न्यायपालिका के प्रति एक संदेहपूर्ण दृष्टिकोण विकसित हुआ है जिसकी पृष्ठभूमि में वर्षों से लंबित मामले, न्यायिक सुगमता, न्यायपालिका में भ्र्ष्टाचार, जजों की नियुक्ति और उनमें सामुदायिक विविधता जैसे मुद्दे शामिल हैं। जहाँ मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा मानता है कि न्यायपालिका एक भरोसेमंद संस्था है, वहीं दूसरों का मानना है कि उपर्युक्त मुद्दों के कारण इसकी विश्वसनीयता काफी हद तक गिरी है। आम तौर पर, यह दूसरी वाली श्रेणी है जिसे भारत के साथ-साथ विदेशों में भी वैसी पार्टियों द्वारा लुभाया जाता है जो इनके असंतोष के मुद्दे को उठाना चाहती हैं.

II. घोषणापत्र और भारतीय परिदृश्य

भारत में 1952 के आम चुनावों के बाद जारी किए गए घोषणापत्रों पर गंभीर अकादमिक अध्ययन कम ही हुआ है . हाल के वर्षों में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च द्वारा किये गए घोषणापत्रों के शाब्दिक सर्वे को देखें तो कुछ रोचक रुझान निकलकर आते हैं। इन दस्तावेज़ों के शब्द-दर-शब्द विश्लेषण से यह स्पष्ट तौर पर दिखता  है कि सभी पार्टियों के लिए जनकल्याण सबसे बड़ा मुद्दा है. वहीं अगर न्यायपालिका या इससे जुड़े सुधारों की बात करे तो ये हाशिये पर ही रहे हैं. 

अगर विभिन्न दलों का तुलनात्मक अध्ययन करें तो भाजपा/तत्कालीन जनसंघ और कांग्रेस का न्यायपालिका पर अधिक जोर रहा है जबकि कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने वादों में प्रायः इसका कम ही उल्लेख किया है। उदाहरण के लिए, सभी पार्टियों में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में सबसे अधिक शब्दों के साथ न्यायपालिका की चर्चा की है, जो 2019 के आम चुनाव आते आते कम हो गई। इसके विपरीत, कांग्रेस पार्टी ने पिछले चार चुनावों में न्यायिक सुधारों पर अधिक बल दिया है। सम्भवतः यह न्यायिक सुधारों पर सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच रही परम्परागत मतभिन्नता को इंगित करता है। अब अगर न्यायिक सुधार में शामिल बिंदुओं की बात करें तो इनमें कॉलेजियम प्रणाली, न्यायाधीशों की निष्प्क्ष नियुक्ति के अलावा त्वरित न्याय, कानूनी सहायता और कोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर को दुरुस्त करने के वादे शामिल हैं।

विभिन्न दलों के घोषणापत्रों का अध्ययन करने के बाद यह प्रतीत होता है की ज्यादातर पार्टियां उन मामलों में यथास्थिति बरकरार रखना चाहती हैं जिनमें हस्तक्षेप से विवाद होने की संभावना है. परन्तु कॉंग्रेस का 2019 पार्टी ने न केवल इस चलन को बदला बल्कि एक बड़े आधारभूत बदलाव की तरफ भी इशारा किया है. पार्टी ने 2019 के आम  चुनावों के पहले सुप्रीम कोर्ट को दो अलग हिस्सों में विभक्त करने की बात कही जिसमें से एक अपीलीय अदालत होगी वहीं दूसरी  सिर्फ संवैधानिक  मामलों को सुनेगी। ये प्रस्ताव नया नहीं हैं और अतीत में कुछ विधि आयोगों ने भी इनकी अनुशंसा की है। 

परन्तु भारतीय परिदृश्य की बात करें तो ऐसे प्रस्ताव दुर्लभ हैं और ऐसा इसलिए है क्यूंकि आम तौर पर राजनीतिक दल न्यायपालिका के प्रति अतिवादी या कट्टर रुख अपनाने से बचते हैं। इसके मूल कारणों में राजनीतिक अनिच्छा के साथ-साथ ऐसे मुद्दों पर एक बड़ा जनमत जुटाने में होने वाली कठिनाई भी है। उदाहरण के लिए, प्रभाव की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण- बीजेपी का 2019 का घोषणापत्र- देखा जा सकता है। अत्यंत कुशलतापूर्वक ड्राफ्ट किये गए इस घोषणापत्र में शायद ही इस विषय के लिए कोई जगह थी। इस संकल्प पत्र के अंदर न्यायपालिका से जुड़े सुधारों पर अत्यल्प चर्चा की गयी है. स्पष्ट तौर पर जनता को ऐसे संस्थागत मुद्दों से कम सरोकार होता है, अतएव पार्टियां भी इनपर ध्यान ना देकर जनकल्याण से जुड़े मुद्दे ही उठाती  रही हैं. 

अब अगर क्षेत्रीय दलों की बात करें तो उनके वादों में क्षेत्रवाद साफ़ झलकता है और इससे न्यायपालिका भी अछूती नहीं रही हैं। देश की सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टियों में से एक, द्रमुक के घोषणापत्र को देखें तो उसमें अदालतों में तमिल भाषा का मुद्दा और वंचित वर्गों की नियुक्तियाँ प्रमुख थीं। इसके अलावा, ऐसे क्षेत्रीय दल जनता के बीच सुगम न्याय या  उसकी पहुंच बढ़ाने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में सुप्रीम कोर्ट की बेंच स्थापित करने का भी उल्लेख करते रहे हैं। वैसे दल जिनका जनाधार सामाजिक न्याय पर केंद्रित है, उनके लिए न्यायालयों में वंचित समूहों का  प्रतिनिधित्व ही मुख्य मुद्दा है। बड़े बदलावों की बात करें तो इन दलों में तृणमूल कांग्रेस के वादे काफी व्यापक रहे हैं  जिनमे फास्ट-ट्रैक अदालत, न्यायिक अनुदान निधि और लंबित मामले जैसे विषय शामिल हैं। इसके अतिरिक्त इस दल ने लीक से हटकर प्रक्रियात्मक कानूनों में भी सुधार की बात की थी जो अक्सर ऐसे पत्रों में देखने को नहीं मिलता. 

 

III. न्यायिक सुधार और विदेशी घोषणापत्र

अगर विदेशों की बात करें तो भारत  से इतर अन्य देशों में राज्यव्यवस्था और न्यायपालिका-कार्यकारी संबंध, दोनों ही घोषणापत्र की प्रकृति को प्रभावित करते हैं। ब्रिटेन में, जहां मुख्यतः दो वैचारिक धड़ों की पार्टियां हैं, वहां संसदीय संप्रभुता के सिद्धांत को छोड़कर लेबर और कंजर्वेटिव पार्टियों के विचारों में काफी अंतर दिखता हैं। उदाहरण हेतु न्यायिक समीक्षा के विषय पर दोनों पार्टियों का रुख उद्धृत किया जा सकता है. इन चुनावों में लेबर पार्टी ने न्यायपालिका को मजबूत करने और इसे पारदर्शी बनाने के अलावा न्यायिक पुनरीक्षा और इसकी स्वतंत्रता हेतु काम करने का वादा किया। इस भावना के ठीक विपरीत, कंजर्वेटिव पार्टी का यह मत था कि न्यायिक पुनरीक्षा के सिद्धांत को मजबूती देना आवश्यक है, लेकिन साथ ही साथ यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि पिछले  दरवाजे से राजनीति करने हेतु इसका दुरुपयोग न किया जाए। 

विदेशी घोषणापत्रों के बारीक अध्ययन में अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के घोषणापत्रों के बीच कई समानताएँ मिलती हैं। अगर अमरीका की बात करें तो लगभग एक दशक से भी पहले, अमरीका की डेमोक्रेटिक पार्टी ने घोषणा की थी कि वह न्यायिक संस्थानों तथा उनके ढांचे को मजबूत करने के लिए प्रतिबद्ध है। इसके अलावा, इस पुरे तंत्र में निष्पक्षता तथा इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों की नियुक्ति की अपनी उपलब्धि को भी इस दल ने प्रमुखता से रेखांकित किया। अब इसकी तुलना में  रिपब्लिकन पार्टी का रवैया उसकी अपनी विचारधारा के अनुकूल रहा है। जैसे, रिपब्लिकन घोषणापत्र में सामाजिक मूल्यों और संविधान की मूल भावना को कमजोर करने वाले वामपंथी न्यायाधीशों की नियुक्ति को रोकने की बात कही गयी थी। पार्टी ने  सिर्फ ऐसे न्यायाधीशों का निरंतर विरोध किया बल्कि  विभिन्न क्षेत्रों में न्यायिक सक्रियतावाद के चलन पर कड़ा प्रहार करते हुए इसे अमेरिकी संविधान के लिए खतरा करार दिया है। 

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका से संबंधित मामलों में ये दल अपनी पारंपरिक उदारवादी और रूढ़िवादी स्थिति को दर्शाते हैं। इस चलन का ऑस्ट्रेलिया में भी लेबर और उदारवादी दलों ने अनुसरण किया है, जहां वे अपने वैचारिक पक्ष पर कायम हैं। 

IV. निष्कर्ष

यह कहना गलत नहीं होगा कि न्यायपालिका में अबतक सुधार इसलिए भी बाधित रहे हैं क्योंकि एक संस्था के रूप में वह मतदाताओं के प्रति सीधे तौर पर जवाबदेह नहीं है. हालाँकि, जब “न्यायिक अतिरेक” जैसे मुद्दों की चर्चा दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है तो स्वाभाविक है कि राजनीतिक दल भी इस चीज पर पर विचार करने  ना सिर्फ बाध्य होंगे बल्कि इसे  सीमित करने के तरीके भी ईजाद करेंगे । ऐसी सूरत में आने वाले समय में घोषणापत्र के अंदर आमूलचूल परिवर्तन वाले वादे देखना हैरत की बात नहीं है. 

राज्य के के इन दो अंगो के टकराव पर बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट से प्रेरित फ्रांसिस बेकन के मशहूर लेख ‘ऐसे ऑन ज्यूडिशियरी’ को उद्धृत करना उचित होगा:

“जजों को स्मरण रहे की सोलोमन के सिंहासन (संसद) का भार दोनों तरफ के सिंहों (राज्य के बाकी दो अंग) के ऊपर था. इन सिंहों को सिंह ही रहने दिया जाना चाहिए परन्तु ध्यान रहे की वो सिंहासन के नीचे ही रहें। यह सावधानी के साथ देखना होगा की वो सम्प्रभुता के किसी बिंदु का उल्लंघन ना करें।”

घोषणापत्रों में न्यायिक सुधारों का उल्लेख कुछ और नहीं बल्कि जनसाधारण  की इस पुरे तंत्र में सुधार की मांग की अभिव्यक्ति को दर्शाता है। अगर ऐसा ना होता तो विभिन्न दल अपने पत्रों में न्यायिक सुधार से जुड़े मुद्दे नियमित रूप से नहीं उठाते। वर्तमान रुझानों के आधार पर यह देखना दिलचस्प होगा कि पार्टियां और न्यायपालिका, राजनीतिक मामलों में बढ़ती न्यायिक सक्रियता और अतिरेक  से उपजे तनाव पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं. जो भी हो, इसमें कोई दो मत नहीं कि यह तनाव घोषणापत्रों में अवश्य प्रतिबिम्बित होगा।

इसे अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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